शून्य की खोज Invention of the zero

शून्य की खोज Invention of the zero

शून्य की खोज Invention of the zero
शून्य की खोज Invention of the zero

शून्य के बिना अंको का प्रयोग कैसे होता था?

Before Zero how number uses in history?

यदि शून्य कल युग में आया तो महारभारत , रामायण काल में १०० पुत्र व १० सिर, दसरथ जैसे गणना कैसी होती थी.

यह प्रश्न गणित में रूचि रखने वाले के मन में जरुर आता होगा.

who discovered zero : aryabhatta invented Zero (0)

सबसे पहले तो इस प्रश्नों के जवाब को जान लेते है.

अप्रामाणिक दस्तावेज़ों के अनुसार भारत में शून्य, जो कि दशमलव प्रणाली का आधार है, का आविष्कार इस्वी सन् की प्रथम शताब्दी में हो चुका था। किन्तु भारत में शून्य के आविष्कार के प्रामाणिक दस्तावेज़ पाँचवी शताब्दी में ही मिले हैं। ग्वालियर में पाये गये शिलालेख, जो कि ईस्वी सन् 870 का है, में शून्य के संकेत पाए गए हैं। इस शिलालेख को सभी इतिहासकारों ने एक मत से मान्यता दी है।

शून्य के आविष्कार हो जाने पर भारत में दस अंको वाली अंक प्रणाली का प्रचलन आरम्भ हो गया जो कि इस संसार में प्रचलित आधुनिक अंक प्रणालियों का आधार बनी।

ऐसे शब्दों के लिए वैदिक कल से ही एक संकेत को उपयोग में लाया गया था. जैसे संख्या 10 की शक्तियों को निरूपित करने के लिए एकल शब्दों का उपयोग किया गया है। सूची में शब्दों के अनुक्रम द्वारा दिए गए क्रमांक एक, दस, सौ, हज़ार, दस हज़ार और इसी तरह दिए गए हैं- एक, दासा, साता, सहस्र, अयुता, लाक्षा, प्रयुता, कोटि, अर्बुदा, अबजा, खारवा, निखरवा, महा पद्म, सांख्य, जलधि, अंत्य, महा संस्कार, परार्ध।

इस प्रकार दशमलव प्रणाली पहले सहस्राब्दी ईसा पूर्व के शुरुआती भाग में भी संस्कृति में थी। यजुर्वेद, अनुष्ठानों और उसमें कार्यरत मंत्रों के वर्णन में, महाभारत और रामायण में उनके आँकड़ों और मापों के वर्णन में, इन सभी शब्दों का उपयोग, कुल त्याग के साथ किया गया है।

उदाहरण के लिए, चतुर वेद (चार वेद), शद शास्त्र (छः शास्त्र), अष्टादश पुराण (अठारह पुराण), सहस्रनाम स्तोत्र (एक देवता के हजार नामों की स्तुति करने वाले भजन), अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्र (भजन की स्तुति) आठ सौ से अधिक। किसी देवता के 108 नाम) आदि।

शून्य की खोज Invention of the zero

value of PI
aryabhatt – शून्य की खोज Invention of the zero

शून्य की खोज आर्यभट जी aryabhatt ने नहीं किया था.

शून्य की संकल्पना आर्यभट के पहले भी की जा चुकी थी. इससे पहले भी अवधारणा के रूप में शून्य का उल्लेख आर्यभट्ट से पहले भी कई गणितीय अभिव्यक्तियों में किया गया है। शून्य और शून्य की अवधारणा समय की शुरुआत से ही प्रचलित रही है। माना जाता है कि आर्यभट्ट ने शून्य के मूल्य के लिए आधुनिक प्रतीक का योगदान दिया है।

प्राचीन बक्षाली पाण्डुलिपि में, जिसका कि सही काल अब तक निश्चित नहीं हो पाया है परन्तु निश्चित रूप से उसका काल आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है, शून्य का प्रयोग किया गया है और उसके लिये उसमें संकेत भी निश्चित है। २०१७ में, इस पाण्डुलिपि से ३ नमूने लेकर उनका रेडियोकार्बन विश्लेषण किया गया। इससे मिले परिणाम इस अर्थ में आश्चर्यजनक हैं कि इन तीन नमूनों की रचना तीन अलग-अलग शताब्दियों में हुई थी- पहली की 224 ई॰ – 383 ई॰, दूसरी की 680–779 ई॰, तथा तीसरी की 885–993 ई॰।


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शून्य का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ है, परंतु सम्पूर्ण विश्व में यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ। ऐसी भी कथाएँ प्रचलित हैं कि पहली बार शून्य का आविष्कार बाबिल में हुआ और दूसरी बार माया सभ्यता के लोगों ने इसका आविष्कार किया पर दोनो ही बार के आविष्कार संख्या प्रणाली को प्रभावित करने में असमर्थ रहे तथा विश्व के लोगों ने इन्हें भुला दिया।

फिर भारत में हिंदुओं ने तीसरी बार शून्य का आविष्कार किया। हिंदुओं ने शून्य के विषय में कैसे जाना यह आज भी अनुत्तरित प्रश्न है। अधिकतम विद्वानों का मत है कि पांचवीं शताब्दी के मध्य में शून्य का आविष्कार किया गया। सर्वनन्दि नामक दिगम्बर जैन मुनि द्वारा मूल रूप से प्रकृत में रचित लोकविभाग नामक ग्रंथ में शून्य का उल्लेख सबसे पहले मिलता है। इस ग्रंथ में दशमलव संख्या पद्धति का भी उल्लेख है।

सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट्ट ने आर्यभटीय ([ संख्यास्थाननिरूपणम् ]) में कहा है- शून्य की खोज Invention of the zero

एकं च दश च शतं च सहस्रं तु अयुतनियुते तथा प्रयुतम्।
कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात्स्थानं दशगुणं स्यात् ॥ २ ॥

अर्थात् “एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, कोटि, अर्बुद तथा बृन्द में प्रत्येक पिछले स्थान वाले से अगले स्थान वाला दस गुना है।” और शायद यही संख्या के दशमलव सिद्धान्त का उद्गम रहा होगा। आर्यभट्ट द्वारा रचित गणितीय खगोलशास्त्र ग्रंथ ‘आर्यभट्टीय’ के संख्या प्रणाली में शून्य तथा उसके लिये विशिष्ट संकेत सम्मिलित था (इसी कारण से उन्हें संख्याओं को शब्दों में प्रदर्शित करने के अवसर मिला)।

बख्शाली पांडुलिपि और शून्य का इतिहास : शून्य की खोज Invention of the zero

बोडेलियन पुस्तकालय (आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय) ने बख्शाली पांडुलिपि की कार्बन डेटिंग के जरिए शून्य के प्रयोग की तिथि को निर्धारित किया है। पहले ये माना जाता रहा है कि आठवीं शताब्दी (800 AD) से शून्य का इस्तेमाल किया जा रहा था। लेकिन बख्शाली पांडुलिपि की कार्बन डेटिंग से पता चलता है कि शून्य का प्रयोग चार सौ साल पहले यानि की 400 AD से ही किया जा रहा था। बोडेलियन पुस्तकालय में ये पांडुलिपि 1902 में रखी गई थी। 

बख्शाली पांडुलिपि 1881 में अविभाजित भारत के बख्शाली गांव (अब पाकिस्तान) में मिली थी। इसे भारतीय गणित शास्त्र के पुरानतम किताब के तौर पर देखा जाता है। हालांकि इसकी तारीख को लेकर विवाद था। पांडुलिपि में शब्दों, अक्षरों और लिखावट के आधार पर जापान के शोधकर्ता डॉ हयाशी टाको ने इसकी तिथि 800-1200 एडी के बीच निर्धारित की थी। बोडेलियन पुस्तकालय के लाइब्रेरियन रिचर्ड ओवेडेन ने कहा कि बख्शाली पांडुलिपि की तिथि का निर्धारण करना गणित के इतिहास में महत्वपूर्ण कदम है।

शून्य के प्रयोग के बारे में पहली पुख्ता जानकारी ग्वालियर में एक मंदिर की दीवार से पता चलता है। मंदिर की दीवार पर लिखे गए लेखों (900 AD) में शून्य के बारे में जानकारी दी गई थी। शून्य के बारे में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्कस डी सुटॉय कहते हैं कि आज हम भले ही शून्य को हल्के में लेते हैं, लेकिन सच ये है कि शून्य की वजह से  फंडामेंटल गणित को एक आयाम मिला।

बख्शाली पांडुलिपि की तिथि निर्धारण से एक बात तो साफ है कि भारतीय गणितज्ञ तीसरी-चौथी शताब्दी से शून्य का इस्तेमाल कर रहे थे। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि भारतीय गणितज्ञों ने गणित को एक नई दिशा दी।

शून्य की खोज Invention of the zero

शून्य की खोज Invention of the zero
शून्य की खोज Invention of the zero

पिंगलाचार्य : शून्य की खोज Invention of the zero

भारत में लगभग 200 (500) ईसा पूर्व छंद शास्त्र के प्रणेता पिंगलाचार्य हुए हैं, जिन्हें द्विअंकीय गणित का भी प्रणेता माना जाता है। इसी काल में पाणिनी हुए जिनको जिनको संस्कृत व्याकरण लिखने का श्रेय जाता है। अधिकतर विद्वान पिंगलाचार्य को शून्य का आविष्कारक मानते हैं। पिंगलाचार्य के छंदों के नियमों को यदि गणितीय दृष्टि से देखें तो एक तरह से वे द्विअंकीय (बाइनरी) गणित का कार्य करते हैं और दूसरी दृष्टि से उनमें दो अंकों के घन समीकरण तथा चतुर्घाती समीकरण के हल दिखते हैं।

गणित की इतनी ऊंची समझ के पहले अवश्य ही किसी ने उसकी प्राथमिक अवधारणा को भी समझा होगा। अत: भारत में शून्य की खोज ईसा से 200 वर्ष से भी पुरानी हो सकती है।

भारत में उपलब्ध गणितीय ग्रंथों में 300 ईस्वी पूर्व का भगवती सूत्र है जिसमें संयोजन पर कार्य है तथा 200 ईस्वी पूर्व का स्थनंग सूत्र है जिसमें अंक सिद्धांत, रेखागणित, भिन्न, सरल समीकरण, घन समीकरण, चतुर्घाती समीकरण तथा मचय (पर्मुटेशंस) आदि पर कार्य हैं। सन् 200 ईस्वी तक समुच्चय सिद्धांत के उपयोग का उल्लेख मिलता है और अनंत संख्या पर भी बहुत कार्य मिलता है।

गुप्तकाल की मुख्य खोज नहीं है शून्य :शून्य की खोज Invention of the zero

गुप्तकाल की मुख्‍य खोज शून्य नहीं बल्कि शून्ययुक्त दशमिक स्थानमान संख्या प्रणाली है। गुप्तकाल को भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है। इस युग में ज्योतिष, वास्तु, स्थापत्य और गणित के कई नए प्रतिमान स्थापित किए गए। इस काल की भव्य इमारतों पर गणित के अन्य अंकों सहित शून्य को भी अंकित किया गया है। शून्य के कारण ही शालिवाहन नरेश के काल में हुए नागार्जुन ने शून्यवाद की स्थापना की थी। शून्यवाद या शून्यता बौद्धों की महायान शाखा माध्यमिका नामक विभाग का मत या सिद्धांत है जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है।

401 ईसवी में कुमारजीव ने नागार्जुन की संस्कृत भाषा में रचित जीवनी का चीनी भाषा में अनुवाद किया था। नागार्गुन का समय 166 ईस्वी से 199 ईस्वी के बीच का माना जाता है। नई संख्या पद्धति के प्राचीन लेखों से प्राप्त सबसे प्राचीन उपलब्ध प्रमाण  ‘लोक विभाग’ (458 ई.) नामक जैन हस्तलिपि में मिलते हैं। दूसरा प्रमाण गुजरात में एक गुर्जर राजा के दानपात्र में मिलता है। इसमें संवत 346 दर्ज किया गया है। 

आर्यभट्ट और शून्य : शून्य की खोज Invention of the zero

आर्यभट्ट ने अंकों की नई पद्धति को जन्म दिया था। उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय में भी उसी पद्धति में कार्य किया है। आर्यभट्ट को लोग शून्य का जनक इसलिए मानते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय के गणितपाद 2 में एक से अरब तक की संख्याएं बताकर लिखा है। स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात मतलब प्रत्येक अगली संख्या पिछली संख्या से दस गुना है। उनके ऐसे कहने से यह सिद्ध होता है कि निश्चित रूप से शून्य का आविष्कार आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है।

ब्रह्मगुप्त : शून्य की खोज Invention of the zero

ब्रह्मगुप्त ने अपने ग्रंथ ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ में शून्य की व्याख्या अ-अ=0 (शून्य) के रूप में की है। श्रीधराचार्य अपनी पुस्तक ‘त्रिशविका’ में लिखते हैं कि ‘यदि किसी में शून्य से जोड़ दे तो उस संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता है और यदि किसी संख्या में शून्य से गुणा करते हैं तो गुणनफल भी शून्य ही मिलता है।’

यह भी तथ्य है कि हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि गणना करते समय शून्य केवल एक चीज है जिसे हम लागू करते हैं। 0 का उपयोग किए बिना अनिश्चित काल तक गिन सकते हैं एक प्रतीक, एक सुविधा है, गणितीय प्राथमिकता नहीं है। यही कारण है कि इसे एक आविष्कार कहा जाता है और एक खोज नहीं है।

सौ तक की गिनती करते समय आप कितनी बार “शून्य” शब्द का उच्चारण करते हैं? एक बार नहीं, सही?

शून्य को दशमलव संख्या प्रणाली में “लागू” किया जाता है क्योंकि यह गणितीय संचालन को अविश्वसनीय रूप से आसान बनाता है, जो अन्य सिस्टम हमें गारंटी नहीं दे सकते हैं।

उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि भारत में शून्य का प्रयोग ब्रह्मगुप्त के काल से भी पूर्व के काल में होता था।

शून्य तथा संख्या के दशमलव के सिद्धान्त का सर्वप्रथम अस्पष्ट प्रयोग ब्रह्मगुप्त रचित ग्रंथ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में पाया गया है। इस ग्रंथ में ऋणात्मक संख्याओं (negative numbers) और बीजगणितीय सिद्धान्तों का भी प्रयोग हुआ है। सातवीं शताब्दी, जो कि ब्रह्मगुप्त का काल था, शून्य से सम्बंधित विचार कम्बोडिया तक पहुँच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अन्य जगहों में फैल गये।

इस बार भारतीयों के द्वारा आविष्कृत शून्य ने समस्त विश्व की संख्या प्रणाली को प्रभावित किया और संपूर्ण विश्व को जानकारी मिली। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया। अंततः बारहवीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुँचा। भारत का ‘शून्य’ अरब जगत में ‘सिफर’ (अर्थ – खाली) नाम से प्रचलित हुआ। फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेजी में ‘जीरो’ (zero) कहते हैं।

कुल मिलकर देखा जाये तो इतिहास के बहुत प्रमाण यह साबित करते है की शून्य अथवा गणित (शून्य की खोज Invention of the zero) जैसे उपहार भारत ने ही दुनिया को दिया परन्तु यह साबित करना की शून्य अथवा गणित को किसी व्यक्ति विशेष से जोड़ना संभव नहीं है. क्यूंकि सभी ने अपने अपने सिद्धांतो को दुनिया के सामने रखे है. इसलिए यह कह सकते है की इन सभी सिद्धांतो से गणित की निर्मिती हुयी.

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